भगवतीचरण वर्मा कृत 'भूले बिसरे चित्र' सन 1959 में प्रकाशित एक बृहद्काय
उपन्यास है, जिसे सन 1961 में साहित्य अकादेमी पुरस्कार से नवाजा गया था। सन
1880 से 1930 तक की विस्तृत कालावधि को समेटे इस उपन्यास में मध्यवर्ग के
उद्भव और विकास से लेकर सामंतवाद के ह्रास, संयुक्त परिवार-प्रथा के विघटन,
पूँजीवाद के उदय एवं भारत की राजनीतिक गतिविधियों के बदलते स्वरूप को रेखांकित
किया गया है।
भारतीय जीवन की विभिन्न संघर्षपूर्ण स्थितियों को दर्शाने के लिए वर्मा जी
द्वारा कायस्थ-जाति के एक परिवार की कहानी को आधार बनाया गया है। गौरतलब है कि
मुख्य-रूप से नौकरीपेशा होने के कारण इस जाति के लोगों को अपने घर से दूर
विभिन्न क्षेत्रों में आने-जाने का मौका मिलता रहता था, इसलिए इनका
अनुभव-क्षेत्र काफी विस्तृत हो जाता था। अतः एक ही परिवार की चार पीढ़ियों को
कथा का माध्यम बनाकर वर्माजी ने भारतवर्ष के अनेक जनपदों-तहसीलों और गाँवों
में धड़कते भारतीय जीवन का चित्रण किया है। इस अर्थ में इन चारों पीढ़ियों की
पारिवारिक कथा इस उपन्यास की अधिकारिक कथा है। इसके साथ ही दो गौण कथाएँ भी
कथानक के विकास में अपनी महत्वपूर्ण उपस्थिति दर्ज कराती हैं। पहली कथा है
कहार जाति के घसीटे, उसकी पत्नी छिनकी और बेटे भीखू की। भीखू शिवलाल के साथ
कचहरी में ही काम करता है और वे दोनों 'हमप्याला' भी हैं।
भीखू की पत्नी छिनकी शिवलाल के घर में नौकरानी का काम करती है लेकिन अपनी
ईमानदारी, स्वामिभक्ति और शिवलाल के साथ अपने अवैध संबंधों के कारण परिवार का
हिस्सा हो गई है, यही कारण है कि शिवलाल मरते समय उसे बेटे ज्वाला की दूसरी
'माँ' तक कह देते हैं। भीखू भी इसी परिवार का घरेलू नौकर बनकर जिंदगी गुजार
देता है। दूसरी कथा प्रभुदयाल, उनकी पत्नी जैदेई और बेटे लक्ष्मी की है।
प्रभुदयाल महाजन है और अपनी चालाकी तथा तिकड़म के बल पर लंबी-चौड़ी जमींदारी का
मालिक बन बैठा है। लेकिन यही होशियारी और झूठी इज्जत जमींदारी के वास्तविक
मालिक गजराज सिंह और बरजोर सिंह की हत्या का कारण बनती है तो खुद प्रभुदयाल भी
बरजोर सिंह द्वारा मारा जाता है। प्रभुदयाल का बेटा भी अपने इन्हीं गुणों के
चलते एक बड़ा पूँजीपति बन बैठता है। इस तरह ग्रामीण महाजनी सभ्यता धीरे-धीरे
पूँजीवाद की ओर बढ़ती दिखाई देती है। जाहिर है, इस कथा के माध्यम से संभवतः
वर्माजी ने सामंतवाद के पराभव और पूँजीवाद के उदय के कारणों को दिखाया है।
वर्माजी द्वारा चित्रित मुंशी शिवलाल और उनके परिवार की तीन पीढ़ियों के सदस्य
भारतीय इतिहास, राजनीति एवं समाज में हो रहे परिवर्तनों का न केवल अनुभव करते
हैं बल्कि उनमें सक्रिय सहयोग भी देते हैं। शिवलाल एक सामान्य अर्जीनवीस है,
लेकिन अँग्रेज कलक्टर के साथ चाटुकारिता और चालाकी से अपने अँग्रेजी पढ़े-लिखे
बेरोजगार बेटे ज्वालाप्रसाद को नायब तहसीलदार बनवा देते हैं। यह मध्यवर्ग के
उत्थान की पहली प्रक्रिया है। जिसका स्वाभाविक असर संयुक्त परिवार पर पड़ता है।
शिवलाल विधुर है, इसलिए अपने भाई राधेलाल के परिवार के साथ संयुक्त रूप से
रहते हैं। उनके परिवार की मालकिन राधेलाल की पत्नी है। राधेलाल बेहद काँइयाँ
आदमी हैं और उनके बेटे एक-से-एक आवारा हैं। संयुक्त परिवार में अगर कोई एक
आदमी सरकारी ओहदा पा जाता है तो अन्य सदस्य भी प्रायः उसके सहारे अपनी उन्नति
करना चाहते हैं। राधेलाल भी यही सोचकर ज्वालाप्रसाद की नौकरी से उत्साहित हो
उठता है। जब घर की नौकरानी छिनकी को यह खबर लगती है तो वह सबसे पहले ज्वाला की
पत्नी जमुना को सरकारी अफसरी और अपनी गृहस्थी का महत्व समझाते हुए कहती है कि
उसे संयुक्त परिवार का लोभ और चिंता छोड़कर पति के साथ जाकर रहना चाहिए।
इस पर राधेलाल की पत्नी विरोध करती है और खुद पंद्रह दिन के लिए ज्वाला के
यहाँ जाकर उसके रहने का बंदोबस्त कर आने का प्रस्ताव रखती है। लेकिन छिनकी
शिवलाल के पास पहुँच जाती है और उसे संयुक्त परिवार की मुश्किलों से अवगत
कराकर जमुना को ज्वाला के साथ भेजने का सुझाव दे देती है। शिवलाल भी छिनकी के
बुद्धि-चातुर्य और निष्ठा से प्रभावित हो जाते हैं और जमुना को ज्वालाप्रसाद
के साथ भिजवाने की व्यवस्था कर देते हैं। इस प्रकार वर्माजी इस उपन्यास में
पहली बार घर से दूर अन्यत्र नौकरी मिलने के प्रभावस्वरूप संयुक्त परिवार के
टूटने तथा एकल-परिवार बनने के कारणों और उसकी प्रक्रिया की ओर संकेत करते हैं।
देवीशंकर अवस्थी के शब्दों में, 'बेटे के साथ बहू का जाना संयुक्त-प्रथा की
पहली दरार है, फिर तो मुंशी शिवलाल के भाई राधेलाल की हर प्रकार की चेष्टाओं
के बावजूद यह संयुक्त कौटुंबिकता टूटकर रहती है। यह समस्या आगे भी आ सकती थी,
शायद इसी से बचने के लिए लेखक ने ज्वालाप्रसाद, गंगाप्रसाद एवं नवल तीनों को
इकलौता बेटा ही दिखाया है।'
जमुना के अपने पति ज्वाला के पास जाने के कुछ दिन बाद शिवलाल भी छिनकी को लेकर
बेटे के यहाँ घाटमपुर रहने पहुँच जाते हैं। धीरे-धीरे राधेलाल भी अपने बेटों
के साथ वहीं आ जाते हैं। महत्वाकांक्षी राधेलाल के सभी बेटे बेरोजगार हैं, सो
वह अक्सर भाई शिवलाल के साथ विभिन्न किस्म की तिकड़मी योजनाएँ बनाकर
ज्वालाप्रसाद को जमीन-जायदाद इकट्ठी करने के लिए उकसाते रहते हैं, लेकिन
ज्वालाप्रसाद पिता और चाचा के फरेब में आने से मना कर देता है। ज्वाला के इस
विरोध से क्षुब्ध होकर शिवलाल आत्महत्या कर लेते हैं। ज्वालाप्रसाद अपने
भाइयों और चाचा की नित-नई तिकड़मों और वारदातों से परेशान है, वह अक्सर उन्हें
ईमानदारी से चलने की सलाह देता है। पर वे ज्वाला का सहारा लेकर गलत ढंग से
अपना उद्धार करने में लगे रहते हैं। तत्कालीन मध्यवर्ग के सामने सामंतवाद,
पूँजीवाद और साम्राज्यवाद तीनों परिस्थियाँ मौजूद थीं। वहाँ एक तरफ नैतिकता और
ईमानदारी जैसे मूल्य दिखाई दे रहे थे तो दूसरी ओर उनका पतन भी हो रहा था। जैसे
ज्वालाप्रसाद अपने चाचा से कहते हैं, 'मैंने जो कुछ आप लोगों से कहा है, वह आप
लोगों के हित में और अपने हित में कहा है। लड़कों से कहिए कि ईमानदार बनें और
मेहनत करें। उनकी ईमानदारी और मेहनत में मैं हर तरह की मदद करने को तैयार हूँ।
पर मेरे साथ रहकर ये सब लोग आवारा, कामचोर, बेईमान और लुटेरे बन रहे हैं। आखिर
इनकी जिंदगी सुधारना आपका कर्तव्य है।' यह 'आप' और 'अपने' की द्वैत-भावना भी
संयुक्त परिवार के टूटने की वजह बन रही थी।
घाटमपुर में ही ठाकुर बरजोर सिंह, ठाकुर गजराज सिंह एवं लाला प्रभुदयाल के
संघर्ष के रूप में हमें सामंतवाद बनाम पूँजीवाद का घात-प्रतिघात दिखाई देता
है। प्रभुदयाल उक्त दोनों कुलाभिमानी और पुराने सामंती ठाठ-बाट में गर्क
ठाकुरों को नीचा दिखा देता है लेकिन न्याय और कानून के नाम पर नौकरशाही यानी
ज्वालाप्रसाद को अपने पक्ष में रखना नहीं भूलता। इस तरह पूँजीवाद और नौकरशाही
के गठजोड़ से लेखक ने सामंतवाद की पराजय को चित्रित किया है। यहीं से अनैतिकता
के खेल भी शुरू होते हैं। बरजोर सिंह द्वारा प्रभुदयाल की हत्या के बाद पूरी
संपत्ति और जायदाद उसकी पत्नी जैदेई के हाथ में आ जाती है। जिसे बनाए रखने के
लिए वह भी नौकरशाही से संबंध गाँठे रहती है, बल्कि ज्वालाप्रसाद के साथ
यौन-संबध स्थापित कर पूँजीवाद और नौकरशाही के गठजोड़ को एक नया मोड़ भी दे देती
है। हालाँकि इसी के बाद से वह ताउम्र के लिए ज्वालाप्रसाद के घर की शुभैषिणी
भी बन जाती है।
यही कारण है कि जब ज्वालाप्रसाद का बेटा गंगाप्रसाद कुछ बड़ा होता है तो वह
उसकी उच्च-शिक्षा का भार अपने ऊपर ले लेती है। जैदेई के पास रईसी ठाठ-बाट में
रहकर गंगाप्रसाद के व्यक्तित्व में गजब का निखार आता है। वह अपनी योग्यता,
ज्वालाप्रसाद की खुशामद और लक्ष्मीचंद की सिफारिश से डिप्टी कलक्टर बन जाता
है। एक सामान्य अर्जीनवीस मुंशी शिवलाल के परिवार की यह प्रगति उल्लेखनीय है।
ऊपर से, लक्ष्मीचंद जैसे पूँजीपति का साथ, जो उसके परिवार को अनपेक्षित सम्मान
और सुविधाएँ दिलवाता है। इसीलिए एक दबंग, रौबीले स्वभाव और आकर्षक व्यक्तित्व
के मालिक गंगाप्रसाद को सरकारी अफसर के रूप में बेहिसाब सफलता मिलती है, पर ये
सफलता और अतिरिक्त सुख-सुविधाएँ उसे भोग-विलास की ओर भी ले जाती हैं। शराब और
स्त्री दोनों, उसकी कमजोरी बन जाती हैं। पहले तो वह अतृप्त काम-वासना से पीड़ित
संतो नाम की स्त्री को अपनी वासना का शिकार बनाता है और इसके बाद वेश्या मलका
से उसका संबंध हो जाता है।
मलका अपने पंकिल जीवन से निकलकर हमेशा के लिए गंगाप्रसाद की हो जाना चाहती है
पर यहाँ गंगाप्रसाद के मध्यवर्गीय संस्कार आड़े आ जाते हैं और वह अपने मित्र
अलीरजा से कहता है, 'अलीरजा साहब, आपको मैं यह बतला दूँ कि उसके रुपयों से
मुझे कोई मोह नहीं है। मैं तो उसकी मुहब्बत का कायल हूँ। मैं जानता हूँ कि अब
वह कोठे पर नहीं बैठेगी, लेकिन आप ही समझिए कि मेरा खानदान है, मेरी इज्जत
है।' परंतु मदिरा और स्त्री के जाल में फँसकर गंगाप्रसाद बाहर नहीं निकल पाता।
वह अपने पारिवारिक कर्तव्यों से भी विमुख होने लगता है। प्रेमिका मलका तो खैर
उससे छूट जाती है पर वह मदिरा नहीं छोड़ पाता, जिसके कारण उसे यक्ष्मा हो जाता
है। इसी दौर में वह अँग्रेजों की रंगभेद नीति का भी शिकार बनता है, जिसका सदमा
उससे बर्दाश्त नहीं होता। चारों ओर की असफलता असमय उसकी जान ले लेती है।
हालाँकि उसे इस बात का ठीक तरह भान है कि उसने गलती कब और कहाँ की थी। जिसे वह
मरते समय अपने इकलौते पुत्र नवल के आगे स्वीकारता भी है, 'एक दिन मैंने अपनी
नौकरी, गुलामी और विवशता से विद्रोह किया था। मेरे अंदर वाला वह विद्रोह
अवास्तविक था। ज्ञान चाचा जानते हैं इस बात को। मैंने यह तय कर लिया था कि मैं
इस्तीफा दे दूँगा। लेकिन अनायास ही मेरे अंदर वाली कायरता को एक छोटा-सा सहारा
मिल गया और मेरी कायरता मुझ पर चढ़ बैठी। मैंने अपनी इस्तीफा फाड़ डाला था और
अपमान का जहर पी लिया था। मैं उसी समय टूट गया था जब मैंने अपना इस्तीफा फाड़
डाला था। पिछले आठ-दस साल में केवल घिसटता रहा हूँ।'
वस्तुतः यह तत्कालीन मध्यवर्गीय मनःस्थिति और उसके संकटों का चित्रण भी है। जो
सन 1920-30 तक पूँजीवाद और साम्राज्यवाद की छाया के नीचे पनप रहे मध्यवर्ग के
सामने आने लगे थे। ज्वालाप्रसाद और गंगाप्रसाद इसी मध्यवर्ग तथा नौकरशाही के
प्रतीक कहे जा सकते हैं। इन दोनों का आला अफसर बन जाना मध्यवर्ग का चरम भौतिक
उत्थान है लेकिन जब अचानक गंगाप्रसाद की मृत्यु हो जाती है तो उसका बेटा नवल
लगभग उसी स्थिति में पहुँच जाता है जहाँ से उसके दादा ज्वालाप्रसाद ने जीवन की
शुरुआत की थी। असल में नवल पर गंगाप्रसाद की स्वीकारोक्ति और ज्ञानप्रकाश की
प्रेरणा का इतना प्रभाव पड़ता है कि वह रायबहादुर कामतानाथ की बेटी के साथ शादी
करने और उन्हीं के खर्चे पर इंग्लैंड जाकर आई.सी.एस. बनने के प्रलोभन ठुकरा
देता है तथा पूरे आवेश के साथ सत्याग्रह संग्राम में कूद पड़ता है, यहाँ तक कि
उसे जेल भी हो जाती है।
हालाँकि वर्माजी इस बीच यह संकेत करना नहीं भूलते कि आजादी का यह आंदोलन
शहरी-मध्यवर्ग में जितनी तेजी और गहराई से फैल रहा था, गाँवों में उस गति से
नहीं पहुँच पा रहा था। गंगाप्रसाद को स्वाधीनता-संग्राम से सहानुभूति थी लेकिन
उसमें और उसकी पीढ़ी में नौकरी छोड़ने का साहस नहीं था, लेकिन उसकी अगली पीढ़ी
में यह साहस और उससे जुड़ा भरपूर आत्मविश्वास मौजूद था। मुंशी शिवनाथ से लेकर,
ज्वालाप्रसाद और गंगाप्रसाद तक सबके यहाँ भौतिक उन्नयन तो हुआ, लेकिन साथ ही
उनका चारित्रिक पतन भी होने लगता है, उनकी छल-छद्म और चालाकियाँ स्पष्ट दिखाई
देने लगती हैं। वे अंत में नवल के यहाँ चौथी पीढ़ी में आकर चारित्रिक उन्नयन
में बदलती हैं। एक मामूली नौकरी से शुरू हुआ परिवार अपनी चौथी पीढ़ी में कहाँ
पहुँचा, यह उस पीढ़ी के वर्ग-चरित्र एवं नियति की सूचना भी है। उस समय
देशवासियों में जिस राष्ट्र-चेतना का स्फुरण हो रहा था, यहाँ वर्माजी ने नवल
और उसकी सक्रिय पीढ़ी में माध्यम से उसी का सफल अंकन किया है।
यों वर्माजी के इस उपन्यास की मुख्य थीम है - सामंतवादी, साम्राज्यवादी और
पूँजीवादी मूल्यों के परिप्रेक्ष्य में पुराने मूल्यों को टूटते और नए मूल्यों
को बनते हुए दिखाना। इस क्रम में समाज, संस्कृति, इतिहास और राजनीति आदि सबके
निर्माण एवं क्षरण को क्रमशः देखा जा सकता है।
यह उपन्यास अवैध संबंधों के रूप में सामंतवाद की एक प्रमुख मनोवृत्ति को भी
रेखांकित करता है। पहले भी बताया जा चुका है कि मुंशी शिवलाल की पत्नी नहीं
थी, इसलिए वे छिनकी नाम की नौकरानी से संबंध स्थापित करते हैं। इसीलिए छिनकी
की हैसियत उस घर में नौकरानी से अधिक एक स्वामिनी की लगती है। इसी प्रकार
ज्वालाप्रसाद पत्नी के रहते हुए भी लाला प्रभुदयाल की विधवा जैदेई से संबंध
बनाते हैं, हालाँकि यह संबंध कभी शिष्टता की सीमा का अतिक्रमण नहीं करता।
किंतु गंगाप्रसाद ऐसी सारी सीमाएँ लाँघ जाते हैं। पत्नी के रहते दो-दो संबंध,
संतो और मलका से रखते हैं। चूँकि उस दौर में अवैध संबंध रखना अथवा रईसों का
वेश्याओं के यहाँ जाना एक आम मनोवृत्ति थी जो सामंतवाद के पतन के साथ खत्म हो
गई। गंगाप्रसाद की बर्बादी और मृत्यु दिखाने के पीछे भी लेखक का उद्देश्य इस
मनोवृत्ति के प्रति वितृष्णा दर्शाना हो सकता है। इतना ही नहीं तत्कालीन
भारतीय जीवन के विभिन्न प्रसंगों के माध्यम से लेखक ने जाति-प्रथा, छुआछूत,
सांप्रदायिकता, चाटुकारिता, रिश्वतखोरी, कर्ज, कामाचार, झूठा-प्रदर्शन,
संयुक्त परिवारों में शोषण और अत्याचार, घरेलू-हिंसा, दहेज-प्रथा, तलाक,
विधवाओं की समस्या, स्त्री-स्वतंत्रता, शिक्षा एवं आत्मनिर्भरता आदि का भी
समावेश इस रचना में किया है।
श्यामलाल की पत्नी की कथा हिंदू समाज में नारी शोषण का उदाहरण है तो जैदेई के
माध्यम से विधवा-समस्या का एक पक्ष सामने आया है। विद्या के द्वारा दहेज की
समस्या का उद्घाटन होता है। विद्या का अपने क्रूर और दहेज-लोभी ससुर की पिटाई
करने के लिए तत्पर होना तथा स्वयं जीविकोपार्जन के लिए घर से निकलना
नारी-विद्रोह और जागरण को सूचित करते हैं। मलका को तत्कालीन वेश्या-समस्या के
निदर्शन के लिए लाया गया है तो मीर जाफर अली, अल्लामा वहशी, जटिलानंद एवं
डिप्टी अब्दुल हक़ से जुड़े प्रसंगों के माध्यम से सांप्रदायिकता आदि को दर्शाने
का प्रयास किया गया है। इसी प्रकार दिल्ली-दरबार और उसमें आने वाले राजाओं तथा
बड़े लोगों के द्वारा सामंतवादी विलासिता और शाहखर्ची पर प्रकाश डाला गया है।
वस्तुतः भगवतीचरण वर्मा मूलतः पुरानी किस्सागो शैली के लेखक हैं और निस्संदेह
'भूले बिसरे चित्र' असाधारण रूप से रोचक उपन्यास है।
कथाकार श्रीलाल शुक्ल ने अनुसार वर्माजी ने अपने एक लेख में इस उपन्यास के
फिल्मी संदर्भ का भी जिक्र किया है। 'इस उपन्यास की आरंभिक रूपरेखा एक
अपरिपक्व फिल्मी कहानी के रूप में 1938 में बनी थी और कई अंतरालों के बाद यह
उपन्यास 1946 से 1958 के बीच बारह वर्ष के लंबे अर्से में लिखा गया। आश्चर्य
यह है कि इसके बावजूद न तो उपन्यास में कोई शैलीगत शिथिलता आने पाई और न
कथा-सूत्र का क्रम ही कहीं टूटने पाया। निश्चय ही अपने अंतिम रूप में यह
उपन्यास 1938 की उस अपरिपक्व फिल्मी कहानी से बहुत दूर निकल चुका था।' कुछ ऐसी
ही बात डॉ. विश्वम्भरनाथ उपाध्याय ने भी कही है, पर इसके बावजूद इस रचना में
बहुत सारे पात्र और प्रसंग ऐसे हैं, जिनसे इस कृति का संगठन कमजोर पड़ा है।
मुख्य पात्रों के अलावा 'भूले बिसरे चित्र' में विभिन्न प्रकार के पात्र हैं
यथा भीखू, मीर सखावत हुसैन, बरजोर सिंह, राधेलाल, श्यामलाल, लक्ष्मीचंद,
रिपुदमन सिंह, राधाकिशन, संतो, कैलासो, ज्ञानप्रकाश, मलका, अली रजा, विद्या,
रायबहादुर कामतानाथ, बिंदेश्वरीप्रसाद, सिद्धेश्वरीप्रसाद, प्रेमशंकर आदि।
इनमें से कुछ तो याद रह भी जाते हैं, बहुत-से ऐसे भी हैं जो कुछ देर के लिए
आते हैं और फिर गायब हो जाते हैं। इनमें से कुछ के साथ अपनापन हो जाता है, पर
वे अचानक कथासूत्र की जरूरत के अनुसार दृश्य-पट से हट जाते हैं तो उनके प्रति
चिंता-सी होने लगती है कि उनका क्या हुआ होगा? वस्तुतः ऐसे पात्रों की परिणति
सुचिंतित ढंग से हुई नहीं प्रतीत होती। बल्कि कुछ पात्रों के होने की सार्थकता
ही स्पष्ट नहीं हो पाती और वे विलुप्त हो जाते हैं। कुछ पात्र जब युग बीतने या
बदलने का संकेत किए बिना ही अपनी जीवनलीला समाप्त कर लेते हैं तो उनके प्रति
भी एक आश्चर्य का भाव उपजता है। मुंशी शिवलाल, छिनकी, जैदेई, लाला प्रभुदयाल,
जमुना के मरने पर कुछ ऐसी ही प्रतिक्रिया महसूस होती है। लेखक द्वारा कुछ
चरित्रों को अनावश्यक विस्तार भी दे दिया गया है, जैसे ज्ञानप्रकाश। कभी-कभी
लगता है जैसे वही कथा का मुख्य नायक हो। लेकिन उसका चरित्र असाधारण और महान
होने की घोषणा के बावजूद कमजोर बन पड़ा है। ज्वालाप्रसाद से सीधे संबंधित प्रथम
और द्वितीय खंडों में जैसी अन्विति है वैसी बाद के खंडों में नहीं रह जाती।
कुछ प्रसंगों को भी बेवजह विस्तार दिया गया है।
इस संदर्भ में कुँवर नारायण ने ठीक ही लिखा है कि, 'तीसरे खंड के प्रारंभ में
ही 1911 के दिल्ली दरबार का प्रसंग न केवल निरर्थक और हेतुहीन है, बल्कि
अपूर्ण और भटकाने वाला भी है। गंगाप्रसाद, रिपुदमन, संतो, राधाकिशन किसी और भी
प्रकार से, किसी और भी परिवेश में, एक-दूसरे से परिचित हो सकते थे। उसके लिए
दिल्ली दरबार की इतनी टीम-टाम भरी पृष्ठभूमि सर्वथा अनावश्यक है। वह न तो उस
कालखंड को स्थापित करती है, न इन विभिन्न व्यक्तियों और उनके परस्पर संबंधों
को कोई सार्थकता प्रदान करती है, बल्कि स्वयं अपने आप में इतनी बड़ी घटना होने
से उसके कारण ध्यान हटकर दूसरी अवांतर बातों पर खिंचने लगता है। इसी तरह
रिपुदमन सिंह की अपनी कहानी भी अपने-आप में एक स्वतंत्र कथा या उपन्यास की
विषयवस्तु हो सकती थी, इस उपन्यास में वह कोई बल प्रदान नहीं करती।' कुल
मिलाकर, 'भूले-बिसरे चित्र' के शुरुआती दो खंड, जो सीधे तौर पर ज्वालाप्रसाद
से संबंधित हैं, में जैसी मजबूत अन्विति दिखाई देती है, बाद के खंडों में
प्रवाह के स्तर पर वह अन्विति कमजोर पड़ने लगती है, लेकिन उपरोक्त कुछ बिंदुओं
को छोड़ दिया जाए तो मुद्दों के स्तर पर यह अन्विति आद्यन्त देखी जा सकती है।
भगवतीचरण वर्मा के अन्य उपन्यासों की तरह 'भूले-बिसरे चित्र' में भी मानव को
परिस्थितियों का गुलाम और नियंता के हाथ की कठपुतली बनाकर प्रस्तुत किया गया
है। उनके 'चित्रलेखा' में जहाँ अतीत के पट पर पाप-पुण्य की समस्या का निदर्शन
है, वहीं 'तीन वर्ष' में वर्तमान के धरातल पर प्रेम, विवाह और वासना के सवाल
हैं तो 'टेढ़े-मेढ़े रास्ते' में समसामयिक राजनीतिक विश्वासों के सामने
प्रश्नचिह्न लगाए गए हैं। उनके इन तीनों प्रारंभिक उपन्यासों के मुख्य पात्र
विशिष्ट, वैयक्तिक अंह से ग्रस्त हैं और प्रत्येक किसी-न-किसी बिंदु पर असफल
होता नजर आता है। लेकिन सबके मूल में एक ही विचारधारा है कि 'मनुष्य
परिस्थितियों का दास है'। परिस्थिति-विशेष में न कोई पापी है, न पुण्यात्मा।
इस अर्थ में एक वेश्या कुलकन्या से भी श्रेष्ठतर हो सकती है और सारे राजनीतिक
विश्वास झूठे हो सकते हैं।
'भूले-बिसरे चित्र' में भी अंततः इसी जीनव-दर्शन की स्थापना हुई है कि
परिस्थितियों के साथ मनुष्य की आंतरिक प्रवृत्तियाँ प्रकट होती हैं और मनुष्य
अवश होकर उनके साथ बहता चला जाता है। उपन्यास का एक पात्र लाल रिपुदमन सिंह भी
गंगाप्रसाद से बात करते हुए इसी तथ्य की ओर इशारा करते हुए कहता है कि,
'परिस्थिति और आधारभूत व्यक्तित्व! बाबू गंगाप्रसाद, आधारभूत व्यक्तित्व में
देवता होता है, दानव होता है। नेकी और बदी, क्रिया और प्रतिक्रिया के रूप में
हर एक व्यक्तित्व के भाग हैं। अंतर इतना है कि यह आधारभूत व्यक्तित्व
परिस्थिति के अनुसार अपने को प्रकट करता है। व्यक्ति की आधारभूत प्रवृत्तियाँ
विशेष परिस्थिति में उभरेंगी ही, आदमी कुछ नहीं करता, जो कुछ करवाती हैं वे
परिस्थितियाँ ही कराती हैं। ज्वालाप्रसाद भी अंत में यही कहकर अपने मन को
हल्का करते हैं : 'मनुष्य के हाथ में कुछ नहीं है, बिल्कुल कुछ नहीं है, फिर
चिंता किस बात की जाए? जो होना है, वह हो चुका है, उसे रोका नहीं जा सकता।'
बहरहाल,
वर्माजी ने इस उपन्यास में भारत देश का गौरवशाली इतिहास, इसकी संस्कृति और
बदलते जीवन-मूल्यों को विभिन्न छोटी-बड़ी कहानियों के माध्यम से प्रस्तुत किया
है और इसमें उन्हें पर्याप्त सफलता भी मिली है। शायद इसीलिए उनके 'भूले-बिसरे
चित्र' को इतनी ख्याति अर्जित हुई कि इस रचना का बर्मीज, तिब्बती, जापानी,
रशियन आदि विदेशी भाषाओं सहित कई भारतीय भाषाओं में अनुवाद हो चुका है।